काश पापा की तरह ये दुनिया भी समझ पाती,
तो सोए हुए में उठाकर कहती —
'हाय! मेरा बच्चा भूखा न सो जाए',
और एक ग्लास दूध ही पिला देती...
अब सँभलता नहीं ये दुनियादारी मुझसे,
एक बार तो आजाओ, मुझे समझाने...
पापा, एक बार मुझे हँसकर गले से लगाने।
ये पैसे कमाना, ये दुनियादारी चलाना
मुझे बहुत महँगा लगता है।
कितना अच्छा था वो —
शाम को आपका टॉफी लेकर आना,
स्कूल जाते वक़्त 1 रुपये पॉकेट मनी देना...
अब तो ये 10,000 रुपये भी कम पड़ जाते हैं महीने के,
वो 1 रुपये में जो सुकून ख़रीद लाती थी...
सब कुछ क्यों मैं ही क्यों सोचूं हमेशा?
सब कुछ मैं ही क्यों समझूं हमेशा?
कोई तो समझे मुझे भी आकर...
पापा —
तुम आ जाओ, अल्लाह से बहाना बनाकर,
कि ज़रूरत तुम्हारी है मुझे हमेशा।
ये दुनियादारी हर बार मारती है तमाचा..
एक बार बस आ जाओ बनकर सहारा,
मैं जाने न दूँगी तुम्हें दोबारा..."
---np
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