— N.P. Idrish
हर बार तुम वही
बचपन जैसी गलती करती हो,
बिल्कुल मासूम हरकतें —
ना वक्त पर खाना,
ना दवा लेना,
ज़िद और बेपरवाह सी बातें।
और मैं?
कभी झल्ला उठती हूँ,
कभी थक जाती हूँ,
कभी तो
बस चुपचाप रो देती हूँ।
सोचती हूँ —
"कब तक संभालूँ?
कब तक हर मोड़ पर तुम्हें समझाऊँ?"
कभी गुस्से में कहती हूँ —
"अब बच्ची नहीं हो तुम!"
और फिर खुद ही रुक जाती हूँ —
क्योंकि मुझे याद आ जाता है,
अब मैं ही तो तुम्हारी माँ हूँ।
मन करता है सब छोड़ दूँ,
पर अगले ही पल
दिल से आवाज़ आती है —
"वो माँ है… और अब तू उसकी माँ बन चुकी है!"
फिर आँसू पोंछकर
तुम्हें डांटते हुए
दवाई की पर्ची खोजती हूँ,
और प्यार से कहती हूँ —
"लो माँ, टाइम हो गया है…"
क्योंकि ये रिश्ता
थोड़ा उलझा ज़रूर है,
पर बेहद गहरा है।
अब तुम गलती करती हो,
और मैं माफ़ कर देती हूँ —
जैसे कभी तुम करती थीं
मेरी नादानियों पर।
कभी-कभी
मैं तुम्हें ले जाती हूँ
मूवी दिखाने,
बाहर खाना खिलाने,
बस यूँ ही —
शायद तुम्हारे चेहरे पर
वही मासूम सी मुस्कान
लौट आए।
और कभी-कभी
जब बिना उम्मीद के
तुम मुझे गले लगा लेती हो,
तो उस पल
मुझे माँ वाली परवाह मिलती है —
वही बिना शर्त वाला प्यार।
और तब…
मैं खुद को भूलकर,
पूरी तरह
तुम्हारी माँ बन जाती हूँ।
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